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दीपावली और नक्षत्र-तारक / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
दीप अगणित जल रहे !
अट्टालिकाएँ और कुटियाँ जगमगाती हैं
सघन तम में अमा के !
कर रही नर्तन शिखाएँ ज्योति की
हिल-हिल, निकट मिल !
और थिर हैं बल्ब
नीले, लाल, पीले औ' विविध
रंगीन जगती आज लगती !
हो रही है होड़ नभ से;
ध्यान सारा छोड़ कर
मन सब दिशाओं की तरफ़ से मोड़ कर,
इस विश्व के भूखंड भारत ओर
ये सब ताकते हैं झुक गगन से,
मौन विस्मय !
दूर से भग - देख कर मग,
मुग्ध हो-हो
साम्य के आश्चर्य से भर
ग्रह, असंख्यक श्वेत तारक !
हो गयी है मंद जिनकी ज्योति सम्मुख,
हो गया लघुकाय मुख !
निर्जीव धड़कन; लुप्त कम्पन !