दीपावली / नज़ीर बनारसी
मिरी साँसों को गीत और आत्मा को साज़ देती है
ये दीवाली है सब को जीने का अंदाज़ देती है
हृदय के द्वार पर रह रह के देता है कोई दस्तक
बराबर ज़िंदगी आवाज़ पर आवाज़ देती है
सिमटता है अंधेरा पाँव फैलाती है दीवाली
हँसाए जाती है रजनी हँसे जाती है दीवाली
क़तारें देखता हूँ चलते-फिरते माह-पारों की
घटाएँ आँचलों की और बरखा है सितारों की
वो काले काले गेसू सुर्ख़ होंट और फूल से आरिज़
नगर में हर तरफ़ परियाँ टहलती हैं बहारों की
निगाहों का मुक़द्दर आ के चमकाती है दीवाली
पहन कर दीप-माला नाज़ फ़रमाती है दीवाली
उजाले का ज़माना है उजाले की जवानी है
ये हँसती जगमगाती रात सब रातों की रानी है
वही दुनिया है लेकिन हुस्न देखो आज दुनिया का
है जब तक रात बाक़ी कह नहीं सकते कि फ़ानी है
वो जीवन आज की रात आ के बरसाती है दीवाली
पसीना मौत के माथे पे छलकाती है दीवाली