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दीपों का झीलमिल प्रकाश है / विमल राजस्थानी

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जग के छज्जों-चैबारों पर दीपों का झिलमिल प्रकाश है
कवि के मन-दीपक का दियना जाने क्यों उदास है
मन पर ओढ़ अमावस काली
जग ने कहा कि मनी दिवाली
छल से, बल से, इन दीपों ने
जाने कितनी हँसी चुरा ली

सींच धरा को सावन-भादो
आँखों में बस गये किसी के
आँसू भी तो गये चुराये
झलमल दीप बन गये घी के
लक्ष्मी को प्रसन्न करने का यह कितना दाहक प्रयास है
युग बीते ऐसा ही होते
आँसू में वर्तिका भिगोते
तारावलियों के हुलास में
शव को इन कंधो पर ढोते

कई ब्रह्म धरती पर आये
जाल अनेको गये बिछाये
पर शोषण के कुटिल बाज को
ये बहेलिये पकड़ न पाये
पीता रहा सदैव सिसकियों का वैभव का अट्टाहास है
जाने कब ये दिन बीतेंगे
ये काली रातें गुजरेंगी
कब तक झुकी हुई गर्दन पर
जालिम की तलवार फिरेगी।
लोहू पीकर फूली बाती
क्या योंही हर साल जलेगी
लौ के कंधों पर कब तक?
यों शलभों की अर्थी निकलेगी
जाने कहाँ अग्निवर्णी क्रोधित जन-विप्लव का पलाश है