भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दीपों के झिलमिल प्रकाश में / विमल राजस्थानी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दीपों के झिलमिल प्रकाश में तुम कितनी सुन्दर लगती हो
तारावलियों के हुलास में तुम कितनी मनहर लगती हो
तुम कितनी सुन्दर लगती हो

दूर गगन के एक किनारे
चाँद किरण की बाँह पसारे
तारों की बोली में अपनी
यामा को चुपचाप पुकारे

पर तुम तो ऐसी जैसे चाँदनी सिमट कर खड़ी हो गयी
इन अवाक, अपलक, आँखों को तुम कितनी मनहर लगतो हो
तुम कितनी सुन्दर लगती हो

साँसों के पथ पर फूलों की
भीनी गंध बनी फिरती हो
मेरे जीवन के सरवर में-
तुम कलहंसनि बन तिरती हो

ओ मेरे यौवन की पुलकन! गीतों की सुकुमार प्रेरणे!!
मैं सोता, तुम रात-रात भर मेरे सपनों में जगती हो
झिलमिल रूपों के सुहास में तुम कितनी सुन्दर लगती हो
तुम कितनी मनहर लगती हो

-दीपोत्सव
1956