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दीप जलाओ / राजेन्द्र वर्मा
Kavita Kosh से
जाने कब से घटाटोप है,
अब तो कोई दीप जलाओ।
सदियों से अपने ही घर में
चौपायों की भाँति पले हम
छुटकारा पाने की ख़ातिर
दिशाशूल की ओर चले हम
जाने कब-से भटक रहे हैं,
अब तो कोई राह दिखाओ।
घर-आँगन से वन में आकर
नया बसेरा बना लिया है
अन्धकन्दरा में फँस हमने
मुक्ति-मार्ग अवरुद्ध किया है
जाने कब से फंदों में हैं,
अब तो कोई मुक्ति दिलाओ।
छूछे बादल-से गरजें कवि,
किन्तु काव्य-सरिता है सूखी
तटबन्धों पर सूखे तृण-सम
बिम्ब-प्रतीक योजना रूखी
जाने कब से स्वर खोये हैं,
अब तो कोई गीत सुनाओ॥