दीप जले पर मन सूना / रोहित रूसिया

दीप जले
पर मन सूना
ये जीना भी कैसा जीना

रिश्तों की उधड़ी तुरपाई
भीड़ भरे घर में तन्हाई
एक पल में जो रिश्ते टूटे
जन्म लगे तब हो भरपाई
चाहे झुका लो जितना सीना

प्रेम की कितनी मीठी भाषा
दो ल़फ्ज़ों से जुडता नाता
प्यार सभी पर इतना बरसे
कोई कहीं रह जाये ना प्यासा
ज़हर मगर तुम तन्हा पीना

माटी दीपक गगन घटाएँ
नदिया-झरने मिलकर आये
फूल और ख़ुश्बू एक दूजे के
चन्दा तारे मिलकर गायें
किसने किसका हक़ है छीना?

दीप जले,
पर मन सूनाये
जीना भी कैसा जीना

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