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दीप थे अगणित / अज्ञेय

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 दीप थे अगणित :
मानता था मैं पूरित स्नेह है।
क्योंकि अनगिन शिखाएँ थीं, धूम था नैवेद्य-द्रव्यों से सुवासित,
और ध्वनि? कितनी न जाने घंटियाँ

टुनटुनाती थीं, न जाने शंख कितने घोखते थे नाम :
नाम वह, आतंक जिस का
चीरता थर्रा रहा था गन्ध-मूर्च्छित-से घने वातावरण को।
उपादानों की न थी कोई कमी।

मैं रहा समझे कि मैं हूँ मुग्ध। जाना तभी सहसा
लुब्ध हूँ केवल-कि ले कर जिसे अपने तईं मैं हूँ धन्य-
जीवन शून्य की है आरती!
बहा दूँ सब दीप! बुझने दो

अगर है स्नेह कम। सारी शिखाएँ लुटें। ग्रस ले धुआँ अपने-आप को!
मुखर झन्नाते रहें या मूक हों सब शब्द-पोपले वाचाल ये थोथे निहोरे।
जगा हूँ मैं : क्यों करूँ आराधना उस देवता की
जो कि मुझ को सिद्धि तो क्या दे सकेगा-
जो कि मैं ही स्वयं हूँ!

काशी, 17 नवम्बर, 1946