दीप विवशता लाचारी का / प्रदीप कुमार 'दीप'
दीप विवशता लाचारी का,
बढ़ता वैभव देख रहा हूँ।
मैं अपने नयनों से अपने,
स्वप्नों के शव देख रहा हूँ।
नेह निमंत्रण पाकर मेरा,
आँगन में आ बैठ गयीं हैं,
नववधुओं-सी सज इच्छाएँ,
अँगुली थामे विश्वासों की।
किंतु हर्ष के समारोह में,
विघ्न डालने का प्रण लेकर,
अंतर्मन के रंगमहल में,
भीड़ उपस्थित, संत्रासों की॥
इससे आगे नृत्य पीर का,
भय का उत्सव देख रहा हूँ॥
अद्भुत कितनी कथा सभी की,
और दशा है दयनीय कितनी
घर की छत जर्जर, दीवारों,
के कंधे भी झुके हुए हैं।
बाहर बाढ़ बबंडर आँधी,
तूफानों के सँग हमलावर,
प्राणों की रक्षा की आशा,
में सब घर में रुके हुए हैं॥
मैं जीवन के महासमर में,
मृत्यु का उद्भव देख रहा हूँ।
शक्ति गयी उदंड करो में,
समस्त पांडव वनवासी हैं,
कौन करेगा यत्न टाल दें,
मानवता के सर्वनाश को।
कौन चुनौती देगा आखिर,
महास्वार्थी लोकतंत्र में,
महत्वकांक्षी दुष्ट विधर्मी,
दुर्योधन के अट्हास को!
मुझसे पूछो, चक्र उठाए,
क्रोधित माधव देख रहा हूँ।