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दीप / ज्योतीन्द्र प्रसाद झा 'पंकज'
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एक दीप है जलता।
बुझा हुआ लगता है पर
यह अविरलत बलता रहता।
एक दीप है जलता।
ऊपर राख राख ही केवल,
जलता है प्रतिक्षण प्रतिफल,
जल-थल कर उर की ज्वाला में,
स्नेह किसी का पलता।
एक दीप है जलता।
झौंके पर झौंके हो आए
ऑंधी तूफानों को लिए
अविचल अपनी लघुता में भी
आप-आप यह बलता।
एक दीप है जलता।
जलें न वे मुझ से परवाने,
मिलें न वे मुझ से दीवाने,
सोच रही अपनी लौ माला
स्वयं आप ही छलता।
एक दीप है बलता।