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दीये की तरह / अनिता भारती
Kavita Kosh से
कहते है प्रेम का कोई
रंग-रूप नही होता
वह तो भावनाओं का उद्वेग है
वह उग आता है
हमारे अंदर वैसे ही
जैसे किसी
कंटीली डाल पर गुलाब
या फिर बहता है
उस पानी की तरह
जो तमाम पत्थरों से
टकरा-टकराकर
और-और चमक उठे
वह मुस्कुराता है मन के अंदर
सिर पर खडे
चांद की तरह
एक सुखद अहसास की तरह
पैर जमा लेता है
एक हरे-भरे पहाड़ की तरह
जहाँ से दिखती है
सब चीजें
खुशहाल प्रसन्न और मस्त
फिर भी वह हमारी आँखों से
रहता है अदृश्य ओझल
चित्त में गड़े शूल की तरह
जो छीन लेता है
नींद चैन और आराम
अपने मजबूत कदमों से
बढ़ता है हमारी ओर
हमारा वजूद
अपने अंदर समेट लेता है
तब हमारा वजूद
दिप-दिप कर उठता है
एक तेल भरे दीये की तरह