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दीवारों पर खूँटी / नईम

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दीवारों पर खूँटी, कील-सा ठुका हूँ मैं!
चुनने को कहते
चुन लेता सिंहासन।

आधा अब धँसा हुआ;
आधा कुंठित मन।
डूंगर सूखे अकाल भील-सा झुका हूँ मैं!

उगे नहीं शालबीज
मंत्रित कर बोया था,
आँख बचा बाहर से
भीतर मन रोया था;
आते-जाते समाधि खेत पर रुका हूँ मैं।

जंग लगी बाहर से,
भीतर दीमक चाटे,
खँडहर हुए ये दिन
भय भरते सन्नाटे;

ब्याज अभी बाक़ी है मूल भर चुका हूँ मैं।