भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दीवार / ओम पुरोहित ‘कागद’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम
कान रखते हो
मगर
कान में दीवार नहीं रखते
इसी लिए
अघटित भी
घटित की तरह सुनते हो
और
बना डालते हो
बात का बतंगड़।

तुम कहते हो
दीवारों के भी कान होते है
हां,
दीवारों के भी होते है कान
इसी लिए वे
बहुत कुछ ही नहीं
सब कुछ ही सुनती हैं
कि, तुम्हारी तरह
दीवारों के मुख नही होता
यदि दीवारें मुख रखती
तो तुम से पुछती
कि, तुम ने अपने सुख के लिए
उनके कंधों पर
यह भारी भरकम छत
किस लिए रख दी?