दीवार / कल्पना लालजी
बड़ी मजबूत थीं कभी
दीवारें मेरे घर की
दो का नहीं दस कन्धों का सहारा था उन्हें
बड़े प्यार और लगन से संभाला था उन्हें
हल्की सी खरोंच भी दिल दहला देती थी
मानो वो घर की बड़ी बेटी थी
रंगाई-पुताई तो हर साल होती थी
बड़े चाव से मगन हो माँ कहती थी
ऐसे ध्यान रखना जैसे मेरा रखते हो
संभालना जब तक संभाल सकते हो
इन्ही से सर पर छत है तुम्हारे
समझो दादा और पुरखे है हमारे
दीवारे चमकती थीं दमकती थीं
कई पीढियां देखीं पर नई लगती थीं
आँगन की दीवार तो गढ़ था हमारा
उसके सिवा नहीं था कोई सहारा
चढ़ कर उस पर आम तोड़े जाते थे
फिर वहीँ बैठ बड़े चाव से खाते थे
घर की छत से गांव नज़र आता था
सुबह –शाम का समां बड़ा मन भाता था
रंग उनका कब बदला पता ही न् चला
यूँ तो मन ही मन बदलाव सबको खला
पर धीरे –धीरे आदत सी पड़ गई
और दीवारों की भी रंगत बदल गई
दरारें उन पर अनगिनत नज़र आने लगीं
दयनीय दशा उनकी हमें तडपाने लगी
लाल –पीले धब्बों में इंसानियत झलकती थी
हल्की सी बारिश भी कोनों से टपकती थी
उनके इस रोग का इलाज हो कैसे
पर इनके लिए समय कोई निकले कैसे
इसी तरह दिन महीने और बरस बीते
मर सी गईं दीवारे हमारे जीते
देखते ही देखते कहानी बन गई
पुरखों की हमारे निशानी बन गई