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दीवार / सौरभ
Kavita Kosh से
बढ़ती जा रही है सामने की दीवार
धीरे-धीरे ऊँची हो जाएगी गगन तक
फिर न देख पाऊँगा मैं कुछ भी
न गगन न तारे न ही उड़ते पक्षी
फिर मैं हो जाऊँगा संकीर्ण
बन जाऊँगा धृतराष्ट्र
फिर कुछ न देख पाऊँगा मैं
जब बढ़ जाएँगे विचार
गहरी होती जाएँगी भावनाएँ
जब बढ़ जाएँगी वासनाएँ
जब बढ़ जाएँगी
मेरे सामने की दीवार।