दुःख / कुमार कृष्ण
कोई नहीं बनाता दुःख के लिए जूते
इसीलिए चलता है दुःख ता उम्र नंगे पांव
ठिठुरता है दुःख ठंढ में
झुलसता है गर्मी में
समय के पतीले में ढूंढ़ता है दुःख
सुख की खुशबू
दुःख बाँधता है टुकड़ा-टुकड़ा सुख
फटे-पुराने रुमाल में
रख देता है ताख पर ढिबरी के पास
पूरी रात दुःख के सपनों में आते हैं-
पंख वाले घोड़े
किसी देवलोक की परियाँ
चुरा ले जाती है सुबह की पहली किरण
ताख पर रखा दुःख का गुल्लक
दुःख नहीं बाँधता कभी अपनी बाजू पर घड़ी
सुख से पूछता है समय बार-बार
दुःख आते-जाते लोगों से पूछता है सुख का पता
लोग एक मंदिर की ओर इशारा करते हैं और
कुछ नहीं बोलते
दुःख ढूंढ़ता है उसे मंदिर के अंदर-बाहर
वह कहीं नहीं मिलता
दुःख इन्तजार की चादर ओढ़कर
पड़ा रहता है घर के किसी कोने में चुपचाप
खामोश
कोई नहीं ढूंढ़ना चाहता उसे
कोई नहीं पूछना चाहता उसका हाल
फिर भी हमेशा रहता है इन्तजार
दोस्ती के कम्बल का
क्या तुमने देखा है कभी दुःख का चेहरा?
उसे देखना जब उतर रहा हो वह नंगे पांव आँखों से
बिना किसी शोर के
देखना जब पिघल रहा हो दुःख बेशुमार सपनों के साथ
सुनना दुःख के रोने की आवाज़
पर कितनी अजीब बात है-
कोई नहीं डालना चाहता दुःख के गर्म पानी में
अपनी अंगुलियाँ
दुःख सोचता है बार-बार
वह भी पहने खूबसूरत कपड़े
गुनगुनाए जगजीत सिंह की ग़ज़ल
दुःख सोचता है कोई आए और छुपा ले उसे
अपने छाते के नीचे
दुःख हाथों की लकीरों में-
सुख की रेखाएँ ढूंढ़ता है
दुःख सोचता है-
अगली बार आए जब इस धरती पर
कोई बनाए उसके लिए भी जूते
कोई तान दे सतरंगी छाता
उसके पूरे शरीर पर।