दुःख / रूपम मिश्र
मुझे दुःख ही चुनना होगा
तो मैं प्रेम के दुःख नहीं चुनूँगी
दुःख तो वे भी थे जिन्हें आह ही मयस्सर नहीं हुई
कुछ शौक़ीनी के दुःख थे जिनपर मैं मन की खूब फ़िजूलख़र्ची करती
जबकि मेरे आसपास खुरदरे दुःख मण्डराते थे
कुछ भूख ,दमन और शोषण के भी दुःख थे जो चमकीले नहीं थे
तो मैं उन दुःखों की तरफ पीठ कर लेती
अब मेरे पास दुःखों की लम्बी सूची है
जिनमें उन माओं के दुख हैं जो नवजात की मृत्यु हो जाने पर भी
छाती से लगाकर दूध पिलाती रहीं
जिन्हें बच्चे की मौत के बाद जानवरों की तरह रस्सी से बाँधना पड़ा
मुझे रंज होता है पाले हुए दुःख का दुलार देखकर
और याद आता है उस माँ का दुःख
जो मरे हुए बेटे को ज़िन्दा करने के लिए
डॉक्टर से लेकर नर्स, यहाँ तक कि निर्जीव अस्पताल से गिड़गिड़ाती रही
मैं खेतों की बेटी थी तो मेरे पास खेतिहरों के मटमैले दुःख थे
जिनमें वो किसान थे जो आजीवन घिसटते चले,
ज़िन्दगी से जोक की तरह चिपके रहे, आत्महत्या भी न कर पाए
मेरे पास मेरी उन छोटी बड़ी सखियों के दुःख थे
जो जन्म लेते ब्याह के सपने देखतीं
और हुक़्मबाज़ों के नाम लिख दी जातीं
मैं दुःखों की फ़ेहरिस्त देखती हूँ हर चैत्र,
क्वार में गाँव की बड़की आजी को देवी आतीं
कई बेटियों को जन्म दे चुकी बहुएँ बेटा होने का वरदान पातीं
आजी के सब्ज़बाग़ में मुझे मॉडल जैसे कपड़े पहने
एक विदूषक देश-उद्धारक दिखता
मेरे पास एक आरामतलब कौम की पीढ़ी का गहरा दुःख था
जिसके सिर पर व्यर्थ मर्यादा का बोझ था
जहाँ पिता गेहूँ और गुड़ बेचकर कॉलेज की फ़ीस भरते थे,
और बाद में बेटे खेत बेचकर बुलट ख़रीद लेते
मेरे पास राह चलती इशारतन अश्लील आमंत्रण झेलतीं
और उसे पेट्रोल के धुएँ की तरह पीती
कुछ बनकर घर -परिवार के दुःख हर लेने का सपना पाले
उन लड़कियों के दुःख थे जो आठ किलोमीटर साइकिल से स्कूल जातीं
और मन मे याद रखतीं घर के चूते छप्पर
और पिछले साल रिस्टीकेट भाई का दुःख
बाद में ये ही लड़कियाँ माँ की बीमारी पर दौड़ी आई थीं
और भाभी ने बैरंग लौटा दिया था कि सेवा करने नहीं
कलह और हिस्से के लिए आई हैं
और यही मुँहचोर भाई नज़र झुकाकर कहता है
तुम यहाँ आकर ज्यादा मालिकाना न दिखाओ
गौतमबुद्ध नगर देश की सबसे कर्कश जगह है, मुक्तिबोध !
मैं तुमसे पूछती हूँ — तुम होते तो क्या कहते इसपर !?