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दुःस्वप्न / उत्पल बैनर्जी / मंदाक्रान्ता सेन

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घूम-फिर कर
लौट आती हूँ फ़ोन के पास
हत्यारे की तरह
फ़ोन पर क्या ख़ून लगा रहता है?

ख़ून नहीं। बातें ...
मैं घिसकर रगड़कर मिटा देती हूँ बातों को
पानी डालती हूँ
मुझे फिर भी डर लगता है
आखि़र में मिट्टी खोदकर
टेलीफ़ोन को गाड़ देती हूँ।

लौट आती हूँ बिस्तर पर
और सो जाती हूँ
कि अब कोई डर नहीं
कि अब सुक़ून से सोया जा सकता है।
और तभी कहीं बज उठता है फ़ोन
कहाँ बजता है फ़ोन! कहीं ज़मीन के भीतर से तो नहीं!
दुःस्वप्न की तरह लगातार
बजती रहती फ़ोन की घंटी।

मैं काठ होकर सोई रहती हूँ
मेरे सारे अपराध और अपराध की इच्छाएँ
रात बारह के बाद
मुझे खींच लेते हैं पुरानी दुनिया में।

ज़मीन के भीतर से बजता रहता है फ़ोन
मैं हाथों से ढाँप लेती हूँ कानों को
घंटी दिमाग़ में बजती रहती है...