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दुखती हुई कविता / प्रतिभा किरण
Kavita Kosh से
पाँव के अँगूठे में
नाखून के किनारे धँसे मैल
इनमें क्या ही था?
कुछ आटे का परथन
कुछ नमी से फूली मिट्टी
और क्या
तो फिर इतनी पीड़ा क्यों?
मेरे होंठ के ऊपरी हिस्से पर
आज फूल आयी
हफ्ते भर की चिन्ता
कुछ लिख लिया होता
तो आज ये भी एक कविता होती
पिचकी हुई
न लिखी हुई कवितायें
हमारे शरीर पर आ धमकती हैं
एक जोड़ी कपड़े में
और दुखती हैं
रह रह कर
एक टुकड़ा फिटकरी का
डुबोती हूँ कटोरी भर झूठ में
रख लेती हूँ
फूली चिन्ताओं पर
गर्म करती हूँ
एक भगोना छल
और डालती हूँ पाँव
चुपके से
देखती हूँ
तिरछा
बहते हुए
आटे का परथन
फूली हुई मिट्टी
नाखून दुखाती हुई कविता