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दुखवा! तोर नाउँ कथि हलही? / प्रमोद धिताल / सरिता तिवारी

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चुरमुनिया
मोहना
शोभना
कलधरा
या और कुछ
जो भी हो सकता था
लेकिन लिखा हुआ है नागरिकता में मेरा नाम
दुखा महतो

मुझे जनम देने के बाद ही
माइ<ref>एक रोग का नाम</ref> ने निगल ली थी मेरी माँ को
और छोड़ दि थी मेरे गाल में अपने कुछ खत
दक्षिण के रूखे बयार ने खींचकर अचानक
जब ले गया बापु को
टूटा था मेरा खुशियों का संसार
और रह था दुनिया के लिए दुखवा बनके

नदी किनारे का काँस जैसा
खेत का बकायन जैसा
जैसे बढ़ते हैं मुर्गी के बच्चे
जैसे बढ़ते है सूअर के बछडे
इसी व्यवस्था के मैले नाली में गिरते-गिरते
पला बढ़ा मैं दुखवा
और खो दिया अपना असली नाम

खड़ा होने के लिए केवल दो पाँव हैं मेरे पास
और ओढ़ने के लिए है सारा आकाश
और क्या–क्या चिजों को गुमाने के बाद होते हैं लोग सर्वहारा
मेरे पास तो
नहीं है बाकी
अपना नाम भी

क्या कोई लौटा सकता है मेरा नाम?

इस सर्वहारा चेहरे की सर्वसुलभ तस्वीर लेने के लिए
गाड़ी दौड़ाते , चिल्लाते हुए आते हैं एनजीओ
झण्डा फहराते हुए आती हैं रंग–रंग की पार्टीयाँ
जैसे हर चिज दे सकते हों मुझे
मत पूछना कोई मेरा नाम
मुझे मालूम है
कोई कहीं से दे नहीं सकता
किसी का खोया हुआ नाम

मेरे तकिए के नीचे से चुपचाप निकाल कर
जिसने भी ले लिया है
मेरी माँ का रखा हुआ मेरा नाम
उसी नाम की खोज में
निकला हूँ मैं

नाम ढूँढ़ने के लिए निकले इस आदमी से
मत पूछना भूल कर भी
‘तोर नाउँ कथि हलही?’<ref>दुखवा! तुम्हारा नाम क्या है?</ref>

इस व्यवस्था के बहीखाते के अन्दर ढूँढ़कर
कदाचित
अगर मिल जाए मेरा नाम
कहूँगा एक दिन सगर्व

अभी तो
निकला हुआ हूँ
नाम ढूँढ़ने।