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दुखिया-दीन गमइयाँ / सन्तोष सिंह बुन्देला

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हम हैं दुखिया-दीन गमइयाँ,
जिनकौ कोउ जगत में नइयाँ।

फिरैं ऊसई चटकाउत पनइयाँ, कहाबै अपढ़ा देहाती,
दो रोटन के लानें मारें रात-दिना छाती।

तौऊ ना मिल पाबै,
न सुख सैं खा पाबै।

गइयन-बछलन की सेवा कर हमनें धोई सारै,
दूध-दही की सहर-निवासी मारैं मस्त बहारैं।

हम खुद समाँ-बसारा खात,
तुमैं गैहूँ-पिसिया दै जात।

नाँन भर बदले में लै जात, बनाबैं खुदई दिया-बाती,
दिया लैं संजा कैं उजयार, नहीं तौ लेत नकरियाँ बार।

गुजर हम कर लइए,
लटी-नौनी सइए।

तिली-कपास करै पैदा हम, तुमनें मील बना लए,
जब हम उन्ना लैबे आए, दो के बीस गिना लए।

बराई होय हमारे खेत,
और तुम सुगर मील कर लेत,

सक्कर कंटरौल सैं देत, बात कछु समझ नहीं आती,
महुआ बीन-बीन हम ल्यायँ, तुम्हारी डिसलरियाँ खुल जायें।

सदाँ श्रम हम करबै
तुमारे घर भरबै।

हम खुद रहैं झोपड़ी में और तुमखाँ महल बनाबै,
कैसौ देस-काल आओ, हम तौउ गमार कहाबैं।

अपनी दो रोटिन के हेत,
पेट हम अनगिनते भर देत,

हक्क न हम काहू कौ लेत, चोरी हमें नहीं भाती,
हम सें कोउ कछू कै जाय, तौउ हम माथौ देत नबाय।

अनख ना मन लेबैं,
मधुर उत्तर देबैं।

जो कछु मिलै ओइ मैं अपनी, गुजर-बसर कर राबैं,
छोड़ पराई चुपरी, अपनी सूखी सुख सें खाबैं

हमैं ना कछू ईरखा-दोस,
हमैं है अपने पै सन्तोस,

और ना हम ईमान-फरोस, भई सम्पत कीकी साथी,
रखत हैं मन में एक बिचार, बनैं ना हम भारत कौ भार,

चाहे सर कट जाबै,
चाहे जी कड़ जाबै।

तिली, कपास, अन्न, गन्ना, घी, लकड़ी, मिर्च मसाले,
पत्थर ईंट, चून, बाबूजी, देबैं गाँवन वाले।

जितै हम देत पसीना डार,
उतैबस जात नओ संसार।

सजै धरती माँ कौ सिंगार करै कउवा दूधा-भाती।
सजें जब खेत और खरयान, उतै औतार लेत भगवान,

भूख-ज्वाला भागे,
नओ जीवन जागै।

देखौ बाबू जी, तुम मन सें, ओर हम तन सें काले,
इतने से अटन्तर पै तुम खाँ, हम देहाती साले,

परोसी कौ सुख-दुख निज मान,
देत हम एक दूजे पै जान,

हमारें नइयाँ स्वार्थ प्रधान, सहर में को कीकौ साथी।
परोसी कौ मर जाबै बाप, रेडियो खोलें बैठे आप।

गरब जी कौ तुमखाँ।
बुरओ है ऊ हलखाँ।।

चहत चौंच भर नीर चिरइया, सागर कौ का करनै,
दो रोटी के बाद सुक्ख सैं, सतरी में जा परनै।

किबारे खले डरे रन देत,
जितै चाहौ मन, सो चल देत,

हमारी चोर बलइयाँ लेत, कछू ना चिन्ता मन राती।
सम्पत आउत में दुख देत, जात में तौ जीरा हर लेत,

अरे बाबा छोड़ी।
तुमारी तीजोड़ी।।