दुखी / रूप रूप प्रतिरूप / सुमन सूरो
हमें जबेॅ भी देखने छीं;
तोरा उदास देखने छीं।
भाय रे! यै दुनिया के अनन्त जंजाल,
ठाठोॅ में बुनलोॅ जेना मकरा के जाल,
प्रेमी के अनन्त वियोग, दलिद्री के मार,
पड़लोॅ छौं तोरा कोन दुख असंभार?
आँखी के तारा कोय तड़पी केॅ मरलोॅ छौं?
होय केॅ निखत्तर की सौंसे घोॅर जरलोॅ छौं?
आकी कोय निरीह पर होतें अन्याय;
देखी केॅ मचलोॅ छौं हिरदय में हाय?
दोस्तें या प्रेमी ने करने छौं घात?
बोलै छोॅ केन्हे नी मनोॅ के बात?
भटकल टुकनी रं कहिया सें फँसलोॅ छोॅ?
एत्तोॅ टो जिनगी में कत्तेॅ बेर हँसलोॅ छोॅ?
हमें तोरा बारे में कत्तेॅ नी लेखने छीं;
मजकि बरावर तोरा उदास देखने छीं।
सोनोॅ के रिमझिम बैसाखोॅ के फूल,
कथूँ नी हरै छौं मनोॅ के शूल,
गल-गुदुर दुनियाँ में गुमसुमें रही छोॅ,
चढ़ैलोॅ फूलोॅ रं अकेले बही छोॅ,
सोचोॅ में डुबलोॅ उघरलोॅ आँख,
कमलोॅ पर थिरैलोॅ भमरा के पाँख,
बौलै छौं-‘सुक्खोॅ केॅ जन्मोॅ सें फेकने छीं
दुक्खोॅ केॅ छोड़ी केॅ कुच्छु नै देखने छीं!’