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दुखों की मांग / मनीषा शुक्ला
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क्यों सुखों को ब्याहने की चाह में
तुम दुखों की मांग फिर से भर चले?
कब कहा था जुगनुओं के प्राण ले
तुम उजाला घर हमारे बांटना?
हम न मांगेंगे कभी अब रश्मियां
बस नयन में रजनियाँ मत आंजना
हम नहीं उस ओर आएँगे कभी
तुम जिसे प्राची दिशा कहकर चले
है अभागे भाग्यवीरो का चयन
चल पड़ें हैं नापने नियति चरण
ये न हो इच्छाओं के अमरत्व को
मिल सके उस लोक बस जीवन-मरण
सब उड़ाने टूटकर बिखरी वहीं
जिस तरफ़ उन पंछियों के पर चले
चंद्रहारों की दमक विष घोलती
चूड़ियों से चूड़ियां अनबोलती
डस न ले उसको कहीं काली घटा
अब नहीं वो कुन्तलों को खोलती
तुम गए परदेस क्या ऐसा लगा
ज्यों सुहागिन के सभी ज़ेवर चले