दुखों भरी बर्फ़ / सुरेश सेन निशांत
दुखों भरी बर्फ़ जब पिघलेगी
तो खिलेंगे फूल-ही-फूल
इन पतझरी वृक्षों पर ।
इन घासनियों में
उग आएगी नर्म हरी घास खूब
हम खुशी-खुशी घूमेंगे
इन घाटियों में अपने मवेशियों संग
मन पसंद गीत गुनगुनाते हुए ।
दुखों भरी बर्फ़फ जब पिघलेगी
दोस्त बिना बुलाए ही
आ जाएँगे हमारे घर
अचानक आ मिली ख़ुशी की तरह
आ बैठेंगे हमारी देहरी पर
गुनगुनी धूप-सा मुस्कराते हुए ।
हवा में भीनी गंध
अपने पंखों पे लादे
आ बैठेगी बसन्त की चिड़िया
हमारे आँगन में
चहलक़दमी करता
दूर से देखेगा हमें
हमारा छोटा-सा शर्मिला सुख ।
दुखों भरी बर्फ़ जब पिघलेगी
हमारी जंग लगी दरातियों के चेहरों पर
आ जाएगी अनोखी उत्साह से भरी चमक
खेतों के चेहरे खिल उठेंगे
धूप हमारी आगवानी में
निखर-निखर जाएगी
हम मधुमक्खियों की तरह गुनगुनाते हुए
निकलेंगे अपने काम पर
नहीं फिसलेंगे
उस फिसलन भरी पगडंडी पर
किसी मवेशी के पाँव
नहीं मरेगी किसी की दुधारू गाय
नहीं बिकेगा कभी किसी का कोई खेत ।
दुख भरी बर्फ़ का रंग
पहाड़ों पर गिरी इस मासूम बर्फ़-सा
सफेद नहीं होता ।
वह बादलों से नन्हें कणों के रूप में
नहीं झरती हमारे खेतों, घरों और देह पर
वह गिरती है कीच बनकर
धसकते पहाड़ों पर से
वह गिरती है शराब का रूप धर
पिता के जिस्म पर
माँ के कलेजे पर
हमारे भविष्य पर ।
बदसलूकी की तरह गिरती है
जंगल में लकड़ियाँ लाने गई
बहिन की ज़िन्दगी पर ।
दुखों भरी बर्फ़ रोक देती है
स्कूल जाते बच्चों के रास्ते
उनके ककहरों के रंगों को
कर देती है धुँधला
छीन लेती है उनके भविष्य के चेहरों से
मासूम चमक
उनके हथेलियों को
बना देती है खुरदरा
भर देती है ज़ख़्मों से
उनके नन्हें कोमल पाँव ।
दुखों भरी बर्फ़ पर
सूरज की तपिश का
नहीं होता कोई असर
अपने आप नहीं पिघलती ।
वह पिघलती है
बुलन्द हौंसलों से
विचारों की तपिश से
हमारे लड़ने के अंदाज़ से ।
दुखों भरी बर्फ़ जब पिघलेगी
तो खिलेंगे फूल-ही-फूल
इन पतझरी वृक्षों पर ।