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दुख उवाच / भारतरत्न भार्गव

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दुख ने कहा सुख से
ओ अभिलषित,
जग वन्दित,
मेरा भी जीवन है
पर तुम सा नहीं।

क्यों है नीरांजन प्रेम का
रक्त सिंचित ?
फूलों की पाँखुरियों में
छिपे हैं शूल-दंश भला क्यों ?
यही प्रश्न गढ़ती हैं मेरी साँसें।

अत्यन्त लघु है तुम्हारा संसार
उच्छवास और विराम तक सीमित
चिथड़ा - चिथड़ा अपेक्षा आकाँक्षा
निजता के गुह्य अन्तर में लुका - छिपा बैठा
चोर अवसर ताकता
चुपके से बोध का घर उजाड़ देने का।

लगता है इसी राह में पड़ाव है तुम्हारा
किन्तु वह सराय है
मैं रहता अनन्त में
वीरान अन्धी सँकरी गलियों से गुज़रते
चुग्गा तलाशती चिड़ियों की आकुलता
निश्चल होती लहरों पर डूबते सूरज का अवसाद
वेदना की धड़कन पर घात-प्रत्याघात
नितान्त अपरिचित तुम्हारे संसार से।

अश्रु बिन्दु में डूबकर समन्दर पार करने का सँकल्प
तरूशाखों से झरते हुए पत्तों की
तड़कती नसें सहलाते हुए
बार-बार स्पन्दित अनुभव करने का तोष
धधकते भाड़ की आग में चने - सा खिलना
मेरा जीवन है
तुम्हारे समूचे ब्रह्माण्ड से अलग।