दुख के इस नेपथ्य में / आलोक श्रीवास्तव-२
उसे प्यार चाहिए था
आसमानों जैसा नीला, खुला और फैला
धरती जैसा विशाल,गहन और
हरियाली में डूबा
पर वह इस व्यवस्था की शिकार थी
वह लड़की लड़ रही थी खुद से
उसने पहले घर छोड़ा
फिर रिश्तेदारियां
पर, वह छोड़ नहीं पाई दूर देश से आते
सफेद घोड़ों वाले राजकुमार का स्वप्न
मैं उसे प्यार करना चाहता था
सागर की ऊंची उठती लहरों की साक्षी में
एक शाम उसके दुपट्टे से बांध कर
उसे बहुत दूर के द्वीप की ओर ले जाने की ख़्वाहिश थी
जहां से तारे बहुत क़रीब नज़र आने लगते हैं
दूर के पोतों की छायाएं जहां से डोलती हुई
रात के अंधेरे में हवाओं को चीरती और
पानी में गहरी लकीरें छोड़ती गुज़रती हैं
जहां से घूमती हुई धरती की लय सुनी जा सकती है
और जहां रात का रहस्य
युगों पुराने सपनों की गाथा बुन-बुन कर
घिर आए बादलों को थमाता है
जहाँ शरीर एक प्यास नहीं
कोमलता का अद्वितीय प्राकृतिक अनुभव
और प्यार वचन नहीं
जीवन की एक शैली हो
यहीं कहीं उस द्वीप के पार हवाओं में अब भी
उसके धानी आंचल का रंग पसरा हुआ है
एक अधूरे गीत की लय
घासों के उदग्र नुकीले पत्तों को एकसार करती
वहां फैली हुई है ।
और एक शाम
इस बेछोर फैले शहर की वीरान एक सड़क पर
बगल में चलती उस लड़की की सांसों की आवाज़
अब भी मेरे कानों में गूंज रही है
उसके लिबास का रात में मिला रंग
और पीछे बंधे वालों वाली एक छवि
मन में ठिठकी हुई है...
मै उसे प्यार करना चाहता था
जिसमें कोई वचन, कोई दावा, कोई सपना,
कोई कहानी, कोई फंतासी न थी...
था तो सिर्फ़ उसकी कल-कल निनादिनी
हंसी में डूबा एक वजूद
अंधकार के हर ऊंचे बुर्ज से कुछ हक़ीकतें उतार लाने का संकल्प
पर एक जादू का शिकार थीं उसकी आंखें
वह जादू इस शहर में हर जगह फैला हुआ है
जैसे मौत फैली है, जैसे भूख, जैसे गुलामी
जैसे इंसानॊं को शिकार करने के तमाम फंदे
इस शहर के तमाम कोने में
बेहद करीने से और शाइस्तगी से रख दिए हैं
वह लड़की नहीं जानती थी
ऐसे हर फंदे की डोर का एक सिरा
उसके ख़्वाब के राजकुमार की
रत्नजड़ी पोशाक से जुड़ा है
मैंने करुणा देखी है उसकी आंखों में
प्यार की गहरी तड़प, जो मेरे लिए न थी
पर सच्ची थी, निश्छल थी ...
धुंध में डूबे बढ़ते उस साये के
मोहक अंदाजों की शिकार वह लड़की
छली गयी प्यार के हाथों
उसे मिली उदासी
जब मैं डूबा था उन दिनॊं उसके प्यार में
मैं इस दुनिया को समझने की कोशिश कर रहा था
बारंबार टूट रहा था
पर उससे कहना मुमकिन न था ।
संपत्ति से जुड़े रिश्तों के इस युग में
एक जज़्बा हार रहा था रोज़
रोज़ टूट जाता था आकाशगंगा से एक तारा
एक समझ बार-बार पुख़्ता होती थी ।
एक नदी के लौटने के निशान थे
एक पगडंडी थी घासों में छिपी
दूर तक जाते कदमों के चिन्ह वहां थे
प्रेम के इस विचित्र दृष्टांत में
मीलों अंधकार में फैली आधी रात की सड़कें थीं
झिलमिलाती रोशनियों के जादू में खोए
सागर का नीला अंधकार था
और इस शहर में
रोज़ अकेली पढ़ती एक लड़की थी ।
एक शख़्स था अपनी ही वेदना में घुलता
अपने ही टूटे-फूटे सपनों से कुछ गढ़ता-बनाता
दुख के इस नेपथ्य में
आसमान उतना ही नीला था - खुला और फैला ...
धरती वैसी ही विशाल, गहन और हरियाली में डूबी ....