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दुख के जंगल में फिरते हैं / जावेद अख़्तर

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दुख के जंगल में फिरते हैं कब से मारे मारे लोग
जो होता है सह लेते हैं कैसे हैं बेचारे लोग

जीवन-जीवन हमने जग में खेल यही होते देखा
धीरे-धीरे जीती दुनिया धीरे-धीरे हारे लोग

वक़्त सिंहासन पर बैठा है अपने राग सुनाता है
संगत देने को पाते हैं साँसों के इकतारे लोग

नेकी इक दिन काम आती है हमको क्या समझाते हो
हमने बेबस मरते देखे कैसे प्यारे-प्यारे लोग

इस नगरी में क्यों मिलती है रोटी सपनों के बदले
जिनकी नगरी है वो जानें हम ठहरे बँजारे लोग