दुख के वंदनवार द्वार पर / प्रदीप कुमार 'दीप'
दुख के वंदनवार द्वार पर,
कमरों में मकड़ी के जाले,
दूर कहीं तुम चले गये हो,
चीख-चीख कर बता रहे हैं॥
शॉल रेशमी ओढ़ शान से,
आंगन में बैठी मजबूरी।
मना रही मातम कोने में,
वक्ष पीटकर चाह अधूरी।
बैठ मेज पर ही बतियाते,
बिखरी मदिरा टूटे प्याले,
कितना दर्द सहा है मैंने,
इक दूजे को बता रहे हैं॥
दीवारों पर टँगी विवशता,
मुझे चिढ़ाती तन्हाई में।
सारे स्वप्न विधुर होकर झख,
मार रहे हैं तरुणाई में॥
हाथ मिला कर बेबाकी से,
अश्रु नयन के दिल के छाले,
मुझ पर पहला हक उनका है,
बात-बात में जता रहे हैं॥
सुनकर मेरे मुँह से मेरा,
दिल ही अब मुझसे रूठा है।
कसमों की झूठी दुनिया का,
सच कसमों से भी झूठा है॥
करो नहीं विश्वास किसी पर,
कोई कितनी कसमें खा ले।
यह कहने वाले ही मुझको,
कसम खिलाकर सता रहे हैं॥