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दुख क्या बला है भाई / विपिन चौधरी

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ठंडें गोश्त में तब्दील होने से पहले
यह जान लेना मुनासिब ही था कि
सामने की सफेद दरो-दीवार पर यह काला घेरा क्योंकर बना
 
जब भी उस पर नज़रे टिकती
तब पाँव भी वहाँ से कहीं ओर जाने से इंन्कार कर देते
परछाई भी बार-बार वहीं उलझ कर ठिठक जाती
उनहीं दिनों भीतरी किले की एक दीवार नींव समेत
मज़बुत होती चली गई
 
तब दिमाग की नहीं
मन की एक सजग तंत्रिका ने सुझाया
की इन कारगुज़ारियों के पीछे दुख का एकलौता हाथ है
वह दुःख ही था जो काले एंकात में एक बूंद की तरह टप से टपका और
लगातार फैलता चला गया
तब ही उसे पहचाना जा सका
ज़ाहिर है बुरी चीज़ें इतनी तेज़ी से नहीं फैला करती
सार्वजनिक तजुर्बे के हलफनामे के तहत
बहुत बाद में यह प्रमाणिक भी होता चला गया
 
तो दुख भी इसी आत्मा, मन, अस्थियों और मास-मज्जा के बीच शरण लेने में कामयाब रहा
और फैलता और फूलता भी गया
खुदा गवाह है
किसी के वाज़िब हक पर कब्ज़ा जमाने के नज़दीक हम कभी नहीं गये
दुख का यह मासूम हक था की वह फैले फूले और
मेरे ही आशीर्वाद के तहत
सुख की छोटी-मोटी खरपतवारों को नज़रअंदाज करता हुआ
दिन के उजाले और चाँद की रहनुमाई में दुःख फैलता चला गया
 
एक सुबह जब वह मेरे कंधे तक पहुंचा
तो उसकी आँखों में मेरा ही अक्स था
उस दिन से हम दोनों साथ-साथ है,
भीतर सीने में बुलबुले की तरह और
बाहर आँखों के पानी की तरह
 
दुख के डैने इतने मज़बुत थे
कि अक्सर मैं उसके डैनों पर सवार हो
दुनिया का तमाशा देखती फिर
हम दोनों हँसते-हँसते लोटपोट हो जाते
और कभी अचानक से चुप्प हो उठते
 
कई चमकीली चीज़ो से बहुत दूर ले जाने वाला
और उनकी पोल पटटी से वाकिफ करवाने वाला दुख ही था
इस तरह दुख लगातार माँझता रहा और मैं मँझती रही
नाई के उस्तरे की तरह तेज़ और धारधार
 
दुख ने स्वास्थ्य दिनों में भी पोषण और दवा दारू की
दुख के सौजन्य से मिलता रहा
आत्म-निरिक्षण का एकान्तिक सुख
दुख से मेरी खूब पटी
 
दुनिया को उदास करना खूब आता था
और मुझे उदास होना
तब दुख मेरे कंधे पर हाथ रख मुझसे बातें करता
और हम दुनिया से दूर एक नयी दुनिया के पायदान पर
खडे हो, पिछली दुनिया की धूल साफ करते
 
दुख चुम्बक की तरह उदास और बिखरी चीज़ों को खींच लेता
फिर हम बैठ कर उनहें करीनें से सज़ाते
दुख के लगातार सेवन का सबसे अज़ीज फायदा यह रहा
कि किसी बैसाखी के सहारे को मैनें सिरे से इंकार कर दिया
 
फैज़ का यह कथन
'दुख और नाखुशी दो अलहदा चीज़ें है'
मेरे जीवन के आँगन मे बिलकुल सही उतरा
दुख ने खुशियाँ अपने दोनों मज़बुत हाथों से बाँटी
हो न हो
कासिम जान की तंग गलियों से गुजरते हुए,
मिर्ज़ा ग़ालिब अपना रूख जब
पुष्ट किले की दीवार पर उभरे हुए काले घेरे की ओर करते होगें
तो एकबारगी ठहर कर इस अशरीरी दुःख से आत्मालाप किया करते होगे।