दुख तो गाँव-मुहल्ले के भी हरते आए बाबूजी / ओमप्रकाश यती


दुख तो गाँव–मुहल्ले के भी हरते आए बाबूजी

पर जिनगी की भट्ठी में खुद जरते आए बाबूजी।


कुर्ता,धोती,गमछा,टोपी सब जुट पाना मुश्किल था

पर बच्चों की फ़ीस समय से भरते आए बाबूजी।


बड़की की शादी से लेकर फूलमती के गौने तक

जान सरीखी धरती गिरवी धरते आए बाबूजी।


एक नतीजा हाथ न आया,झगड़े सारे जस के तस

पूरे जीवन कोट–कचहरी करते आए बाबूजी।


रोज़ वसूली कोई न कोई,खाद कभी तो बीज कभी

इज्ज़त की कुर्की से हरदम डरते आए बाबूजी।


नाती–पोते वाले होकर अब भी गाँव में तन्हा हैं

वो परिवार कहाँ है जिस पर मरते आए बाबूजी।

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