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दुख भी सुख का बन्धु बना / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
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दुख भी सुख का बन्धु बना
पहले की बदली रचना ।
परम प्रेयसी आज श्रेयसी,
भीति अचानक गीति गेय की,
हेय हुई जो उपादेय थी,
कठिन, कमल-कोमल वचना ।
ऊँचा स्तर नीचे आया है,
तरु के तल फैली छाया है,
ऊपर उपवन फल लाया है,
छल से छुट कर मन अपना ।
रचनाकाल : 7 दिसम्बर, 1952