भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दुख / मदन कश्यप

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दुख इतना था उसके जीवन में
कि प्यार में भी दुख ही था

उसकी आँखों में झाँका
दुख तालाब के जल की तरह ठहरा हुआ था

उसे बाँहों में कसा
पीठ पर दुख दागने के निशान की तरह दिखा

उसे चूमना चाहा
दुख होंठों पर पपड़ियों की तरह जमा था

उसे निर्वस्त्र करना चाहा
उसने दुख पहन रखा था
जिसे उतारना सम्भव नहीं था ।