दुख / मुकेश नेमा
ओढ़ते बिछाते
किताबे, अख़बार
विद्वता से अपनी
करते आतंकित
दुर्वासा से बाबूजी,
चले गये अचानक
थे जब तो
उनकी अनुपस्थिति
होती थी उत्सव
चीखता, चिल्लाता,
झगड़ता घर
आते ही उनके
हो जाया करता था
शांत मठ बौद्ध
जान सके जो नहीं
होते हु्ये उनके
पता है अब हमें
नहीं हो सके थे जो
वो होना चाहते थे
हम होकर
मोटी किताबों के
संसार के निवासी
चाहते थे बाबूजी
बच्चों का
किताब हो जाना
ऐसी किताबे
जिन्हें पढ़ें
सराहे दुनिया
और जानकर
उनके सृजक को
हो गर्वित
पर रहा बना कठिन
उनके लिये
कह पाना यह
और वे बने रहे
कठिन हमारे लिये
होते तो संतुष्टि
आँखों की उनकी
करती सार्थक
कुछ हो जाने का
सराहे जाने की उनसे
मनोकामना मेंरी
उनके अधूरे जीवन सी
रह जाना है अधूरी
और इसीलिये उनका
चले जाना जल्दी
बड़ा दुख है सबसे
जीवन का मेरे