भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दुख / विजय चोरमारे / टीकम शेखावत

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दुख फिरता है खेत-खलिहानों में
ढूँढ़ते हुए
शिकार को
दबोच लेता है इक्के-दुक्के को
किसी निर्जन स्थान पर
तब
निकलती नहीं आवाज़
चिल्लाने पर भी,
पूरी ताक़त से चिल्लाने पर भी
नहीं होता कोई भी पुकार के समीप
मन को चिन्ता से त्रस्त करके
भीतर तक चुभाकर काँटा
दुख चल देता है
नए शिकार की तलाश में

दुख को नहीं होता डर
अन्धेरे का
उजाले का
दुख ठहरता है
कहीं भी
बस-अड्डे पर
रेलवे स्टेशन पर
हाइवे पर
नदी के पुल पर
बिजली के खम्बे पर
कुएँ के चबूतरे पर
बाज़ार में
एवं
मेले के झूले पर भी

कभी-कभार
दुख बसता हैं
मन्दिर में
मस्ज़िद में
गिरजे में
मुकाम बदलते वक़्त
दुख
भीड़ पर सवार हो जाता है
जयन्ती के जुलूस से
दुख चुपचाप
खिसक जाता है
लोगों के चले जाने के बाद

दुख
हर एक को छलता है
इनसानों के मन के भीतर
बसा रहता है

मूल मराठी से अनुवाद — टीकम शेखावत