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दुछत्ती / अनीता सैनी

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दुछत्ती पर अक्सर छिपाती हूँ
अनगिनत ऊँघती उमंगों की चहचाहट
एहसास में भीगे सीले से कुछ भाव
उड़े-से रंगो में लिपटी अनछुई-सी
बेबसियों का अनकहा-सा ज़िक्र
व्यर्थ की उपमा पहने दीमक लगे
भाव विभोर अकुलाए-से कुछ प्रश्न
ढाढ़स के किवाड़ यवनिका का आवरण
कदाचित शालीनता के लिबास में
ठिठके-से प्रपंचों से दूर शाँत दिखूँ
ऊँघते आत्मविश्वास का हाथ थामे
उत्साह की छोटी-छोटी सीढ़ियों के सहारे
अनायास ही झाँक लेती हूँ बेमन से
कभी-कभार मन दुछत्ती के उस छोर पर
उकसाए विचार चेतना के ज्वार की सनक में
स्वयं के अस्तित्व को टटोलने हेतु।