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दुनिया-ए-मोहब्बत में हम से हर अपना पराया छूट गया / शमीम जयपुरी
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दुनिया-ए-मोहब्बत में हम से हर अपना पराया छूट गया
अब क्या है जिस पर नाज़ करें इक दिल था वो भी टूट गया
साक़ी के हाथ से मस्ती में जब कोई साग़र छूट गया
मय-ख़ाने में ये महसूस हुआ हर मय-कश का दिल टूट गया
जब दिल को सुकूँ ही रास न हो फिर किस से गिला नाकामी का
हर बार किसी का हाथों में आया हुआ दामन छूट गया
सोचा था हरीम-ए-जानाँ में नग़्मा कोई हम भी छेड़ सकें
उम्मीद ने साज़-ए-दिल का मगर जो तार भी छेड़ा टूट गया
क्या शय थी किसी की पहली नज़र कुछ इस के अलावा याद नहीं
इक तीर सा दिल में जैसे लगा पैवस्त हुआ और टूट गया
इस नग़्मा-तराज़-ए-गुलशन ने तोड़ा है कुछ ऐसा साज़-ए-दिल
इक तार कहीं से टूट गया इक तार कहीं से टूट गया