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दुनिया- चार कविताएँ/ केशव
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1
फिर कौंधी है
तुम्हारी छोटी-सी दुनिया
मेरे अन्दर
मैं
निकल पड़ा हूँ
एक राह पर
2
रोशनी ने
पलक झपकाई है
शायद
इसी में कहीं
मुँदी है
मेरी दुनियाँ भी
3
कहने को
हम ज़रूर
हैं
एक-दूसरे की दुनियाँ में
कहीं-न-कहीं
छोड़े जो हैं
हमने
अपने चिन्ह
वहीं-वहीं
4
अपने दुख को
हम
इस दुनिया में
खींच लाते हैं
कुछ इस कदर
सुख की जड़ों को
सींच जाते हैं