दुनिया की आधी बेटियाँ / महेश सन्तोषी
मुझसे क्यों पूछते हो, मैं पढ़ क्यों नहीं सकी?
जाकर समाज से पूछो, कहाँ गयीं मेरे हिस्से की रोटियाँ?
मेरे लिये रोटी क्यों नहीं बची? मुफ्त में नहीं मिलीं मुझे दो वक्त की रोटियाँ!
मैं अपनी थकी-थकी हथेलियों से औरों की रोटियाँ बेलती, सेंकती रही,
एक मुश्त मैं तुम्हें गिना नहीं सकूंगी ज़िन्दगी गरीबी के कितने चौराहों
कितनी गलियों से होकर गुजरी थी?
जहाँ मैं जन्मी थी, वह मेरा प्रारब्ध था,
वसीयत में मिली गरीबी मेरी जन्मजात नियति थी।
वैसे समाज था, सरकारें थीं, सत्ता थी,
पर, भूख की लड़ाई मैंने अकेले ही लड़ी थी,
मुझमें हिम्मत थी, हौंसला था, मैंने हाथ नहीं फैलाए
अपनी हथेलियों से अपने लिये नई सुबह रची थी।
एक मैं ही नहीं रह गयी अनपढ़, दुनिया में करोड़ों बेटियाँ हैं,
जो मेरी तरह पढ़ नहीं सकीं।
तुम मेरे माँ-बाप की मुफलिसी का मजाक मत उड़ाओ,
मुझे मालूम थीं उनकी मजबूरियाँ, उनकी बेबसी!
और अब मुझे उस खोये हुए बचपन की भी याद मत दिलाओ,
जब कई रातों मैं खुलकर रो नहीं सकी,
कई दिनों जी भरकर हँस नहीं सकी!