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दुनिया के नये रंग में ढलने नहीं देता / कुमार नयन
Kavita Kosh से
दुनिया के नये रंग में ढलने नहीं देता
ये कौन मुझे अब भी बदलने नहीं देता।
सड़कों पे कहीं खेल लहू का न हो जारी
ये ख़ौफ़ मुझे घर से निकलने नहीं देता।
टपकाओ न तुम अश्क़ न दिखलाओ कोई ज़ख़्म
ये शहर तो अब मोम पिघलने नहीं देता।
पड़ता है समंदर तो कभी राह में सहरा
चलता हूँ मगर क्यों कोई चलने नहीं देता।
ऐ हुस्न बता तू ही कि ये आग है कैसी
क्यों इश्क़ हमें शौक़ दे जलने नहीं देता।
दरिया में न डूबूं ये बहुत बार है चाहा
लेकिन ये तिरा ख़्वाब सम्भलने नहीं देता।
लुट जाये न जागीर ही एहसास की पल में
ये सोच मिरे दिल को बहलने नहीं देता।