दुनिया तो इसको कहते हैं
पत्तों के मृदु-मर्मर में भी प्राणी यों खूब मचलते हैं
जीवन की सरल कहानी में
भोलेपन में नादानी में
पत्तों के हिलने डुनले पर
आँखों से बहते पानी में
हिमकण जैसे दुख के तापों में
अपने आप पिघलते हैं
बच्चों की मृदु मुस्कानों पर,
दीपक पर, इन परवानों पर,
उन्मुक्त गगन में उड़नेवाले
पंछी से दीवानों पर
इन आह भरे नयनों में मृदु-
मृदु आँसूकण यों पलते हैं
अन्तर में बड़ी विकलता हो
सिरहाने पड़ी सफलता हो
अपने को आप समझने की
आतुरता हो, विवह्लता हो
चलते-चलते, गिरते - पड़ते
आखिर वे स्वयं सँभलते हैं
जब मैंने देखा प्रथम बार
इन आँखों से फिरफिर निहार
थे बाल सूर्य तरूणाई की
अँगराई ले फिर क्षितिज पार
मन मन्दिर में थी ज्योति नहीं
जीवन, जीवन यों ढलत हैं।