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दुनिया में जो भी आए, तारीख़ को बनाने / प्रेमचंद सहजवाला
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दुनिया में जो भी आए, तारीख़ को बनाने
अब गुमशुदा हैं लोगो, उनके पते ठिकाने
साज़िश से बेख़बर थे, सब शहर के मसीहा
घर जल गया तो सारे, निकले कुएँ बनाने
अनजान सो रहे हैं, सब वारिसे-वसीयत<ref>वसीयत के उत्तराधिकारी</ref>
बहरूपिये चले हैं, अब मिल्क़ियत भुनाने
साहिल पे भीड़ थी और, था डूबने को कोई
मैं भी चला गया फ़िर, उस भीड़ को बढ़ाने
हैराँ थे लोग सारे, क़ातिल की देख जुर्रत
क़ातिल वहीं खड़ा था, मकतूल<ref>जिस का क़त्ल हुआ हो</ref> के सिरहाने
लो इंतेखाब<ref>चुनाव</ref> आए, अपने वतन में लोगो
सब लोग जा रहे हैं, सपने नए बनाने
शब्दार्थ
<references/>