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दुनिया में सबकी होती है ताबीर-ए-ख़्वाब कब / मधु 'मधुमन'

दुनिया में सबकी होती है ताबीर-ए-ख़्वाब कब
क़िस्मत के बिन हुआ है कोई कामयाब कब

रहते हैं तीरगी में ही कुछ लोग उम्र भर
आता है हर बशर के यहाँ आफ़ताब कब

दो चार दिन की हैं ये बहारें ये ख़ुश्बूएँ
खिलते हैं रोज़ रोज़ चमन में गुलाब कब

निकलो सफ़र पर घर से तो हर एहतियात से
रस्ते में क्या पता कि हो मौसम ख़राब कब

मुद्दत से इंतज़ार में है ज़ीस्त की किताब
आएगा इसमें अब कोई ख़ुशियों का बाब कब

किस्तें चुकाए जा रहे हैं हम अज़ल से ही
क्या जाने ज़िंदगी का चुकेगा हिसाब कब

हमने सवाल रख दिए हैं उसके सामने
अब देखते हैं आएँगे ‘ मधुमन ‘जवाब कब