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दुनिया सुहानी रात सजलोॅ छै सेजोॅ जेकां / अनिल शंकर झा

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दुनिया सुहानी रात सजलोॅ छै सेजोॅ जेकां,
एक पर एक फूल, रूप-गुण खान छै।

एक-एक क्षण एक प्रेयसी समान लागै,
अमृत-कलश लेनें सोन अधरान छै।

आदमी के पोर-पोर प्यासलोॅ युगोॅ सें आरो,
पीयै लेॅ सिसोही केॅ ऊ अकुलैलोॅ प्राण छै।

लेकिन ठोरोॅ सें ठोर मिलना मुहाल लागै,
बाहरोॅ आ भीतरोॅ सें जड़ता के मान छै।

कतना युगोॅ सें रोज अधरोॅ के अमरित,
पील्हौ पर प्यास आरो बढ़लै निरंतर।

कल्पवृक्ष ठीयां ठौर राखल्ही पेॅ प्यासले छी,
भोगै के ई भावना छै कैहनोॅ चिरंतर

रोजे-रोज फूल रूप, रंग गंध लेनें आबै,
रोजे-रोज भोगल्हौ पेॅ लालसा प्रखरतर।

कौनें धूप-छाँव के ई खेल खेलै सकुनी ना,
केकरा कारण काँपै द्रोपदी के अंतर।