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दुपदी / रमैणी / कबीर

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भरा दयाल बिषहर जरि जागा, गहगहान प्रेम बहु लगा॥
भया अनंद जीव भये उल्हासा, मिले राम मनि पूगी आसा॥
मास असाढ़ रबि धरनि जरावै, जरत जरत जल आइ बुझावै॥
रूति सुभाइ जिमीं सब जागी, अंमृत धार होइ झर लागी॥
जिमीं मांहि उठी हरियाई, बिरहनि पीव मिले जन जाई॥
मनिकां मनि के भये उछाहा, कारनि कौन बिसारी नाहा॥
खेल तुम्हारा मरन भया मेरा, चौरासी लख कीन्हां फेरा॥
सेवग संत जे होइ अनिआई, गुन अवगुन सब तुम्हि समाई॥
अपने औगुन कहूँ न पारा, इहै अभाग जे तुम्ह न संभारा॥
दरबो नहीं काँई तुम्ह नाहा, तुम्ह बिछुरे मैं बहु दुख चाहा॥
मेघ न बरिखै जांहि उदासा, तऊ न सारंग सागर आसा॥
जलहर मरौं ताहि नहीं भावै, कै मरि जाइ कै उहै पियावै॥
मिलहु राम मनि पुरवहु आसा, तुम्ह बिछुर्‌या मैं सकल निरासा॥
मैं रनिरासी जब निध्य पाई, राम नाम जीव जाग्या जाई॥
नलिनीं कै ज्यूँ नीर अधारा, खिन बिछुरयां थैं रवि प्रजारा॥
राम बिनां जीव बहुत दुख पावै, मन पतंग जगि अधिक जरावै॥
माघ मास रुति कवलि तुसारा, भयौ बसंत तब बाग संभारा॥
अपनै रंगि सब कोइ राता, मधुकर बार लेहि मैंमंता॥
बन कोकिला नाद गहगहांना, रुति बसंत सब कै मनि मानां॥
बिरहन्य रजनी जुग प्रति भइया, पिव पिव मिलें कलप टलि गइया॥
आतमा चेति समझि जीव जाई, बाजी झूठ राम निधि पाई॥
भया दयाल निति बाजहिं बाजा, सहज रांम नांम मन राजा॥

जरत जरत जल पाइया, सुख सागर कर मूल॥
गुर प्रसादि कबीर कहि, भागी संसै सूल॥

राम नाम जिन पाया सारा, अबिरथा झूठ सकल संसारा॥
हरि उतंग मैं जानि पतंगा, जंबकु केहरि कै ज्यूँ संगा॥
क्यंचिति ह्नैसुपिनै निधि पाई, नहीं सोभा कौ धरी लुकाई॥
हिरदै न समाइ जांनियै नहीं पारा, लगै लोभ न और हकारा॥
सुमिरत हूँ अपनै उनमानां, क्यंचित जोग रांम मैं जानां॥
मुखां साध का जानियै असाधा, क्यंचित जोग राम मैं लाधा॥
कुबिज होई अंमृत फल बंछ्या, पहुँचा तब मन पूगी इंछ्या॥
नियर थें दूरि दूरि थैं नियरा, रामचरित न जानियै जियरा॥
सीत थैं अगिन फुनि होई, रबि थैं ससि ससि थैं रबि सोई॥
सीत थैं अगनि परजई, थल थैं निधि निधि थैं थल करई॥
वज्र थैं तिण खिण भीतरि होई, तिण थैं कुलिस करे फुनि सोई॥
गिरबर छार छार गिरि होई, अविगति गति जानै नहीं कोई॥
जिहि दुरमति डोल्यौ संसारा, परे असूझि बार नहिं पारा॥
बिख अंमृत एक करि लीन्हां, जिनि चीन्हा सुख तिहकूँ हरि दीन्हा॥
सुख दुख जिनि चीन्हा नहीं जांनां, ग्रासे काल सोग रुति मांनां॥
होइ पतंग दीपक मैं परई, झूठै स्वादि लागि जीव जरई॥
कर गहि दीपक परहि जू कूपा, बहु अचिरज हम देखि अनूपा॥
ग्यानहीन ओछी मति बाधा, मुखां साध करतूति असाधा॥
दरसन समि कछू साध न होई, गुर समांन पूजिये सिध सोई॥
भेष कहा जे बुधि बिगूढ़ा, बिन परचे जग बूड़नि बूड़ा॥
जदपि रबि कटिये सुर आटी, झूठे रबि लीन्हा सुर चाही॥
कबहूँ हुतासन होइ जरावे, कबहुँ अखंड धार बरिषावै॥
कबहूँ सीत काल करि राजा, तिहूँ प्रकार बहुत दुख देखा॥
ताकूँ सेवि मूढ सुख पावै, दौरे लाभ कूँ मूल गवावै॥
अछित राज दिने दिन होई, दिवस सिराइ जनम गये खोई॥
मृत काल किनहूँ नहीं देखा, माया माह धन अगम अलेखा॥
झूठै झूठ रह्यौ उरझाई, साचा अलख जग लख्या न जाई॥
साचै नियरै झूठै दूरी, बिष कूँ कहै सजीवन मूरी॥
कथ्यौ न जाइ नियरै अरु दूरी, सकल अतीत रह्या घट पूरी॥
जहाँ देखौ तहाँ राम समांनां, तुम्ह बिन ठौर और नहिं आंनां॥
जदपि रह्या सकल घट पूरी, भाव बिनां अभिअंतरि दूरी॥
लोभ पाप दोऊ जरै निरासा, झूठै झूठि लागि रही आसा॥
जहुवाँ ह्नै निज प्रगट बजावा, सुख संतोष तहाँ हम पावा॥
नित उठि जस कीन्ह परकासा, पावर रहै जैसे काष्ठ निवासा॥
बिना जुगति कैसे मथिया जाई, काष्ठै पावक रह्या समाई॥
कष्टै कष्ट अग्नि पर जरई, जारै दार अग्नि समि करई॥
ज्यूँ राम कहै ते राम होई, दुख कलेस घालै सब खोई॥
जन्म के कलि बिष जांहि बिलाई, भरम करम का कछु न बसाई॥
भरम करम दोऊ बरतै लोई, इनका चरित न जांनै कोई॥
इन दोऊ संसार भुलावा, इनके लागैं ग्यांन गंवावा॥
इनकौ भरम पै सोई बिचारी, सदा अनंद लै लीन मुरारी॥
ग्यांन दृष्टि निज पेखे जोई, इनका चरित जानै पै सोई॥
ज्यूँ रजनी रज देखत अद्दधियारी, डसे भुवंगम बिन उजियारी॥
तारे अगिनत गुनहि अपारा, तऊ कछू नहीं होत अधारा॥
झूठ देखि जीव अधिक डराई, बिना भुवंगम डसी दुनियाई॥
झूठै झूठ लागि रही आसा, जेठ मास जैसे कुरंग पियासा॥
इक त्रिषावंत दह दिसि फिर आवै, झूठै लागा नीर न पावै॥
इक त्रिषावंत अरु जाइ जराई, झूठी आस लागि मरि जाई॥
नीझर नीर जांनि परहरिया करम के बांधे लालच करिया॥
कहै मोर कछु आहि न वाहीं, धरम करम दोऊ मति गवाई॥
धरम करम दोउ मति परहरिया, झूठे नांऊ साच ले धरिया॥
रजनी गत भई रबि परकासा, धरम करम धूँ केर बिनासा॥
रवि प्रकास तारे गुन खींनां, आचार ब्यौहार सब भये मलीनां॥
बिष के दाधे बिष नहीं भावै, जरत जरत सुखसागर पावै॥
अनिल झूठ दिन धावै आसा, अंध दुरगंध सहै दुख त्रासा॥
इक त्रिषावंत दूसरे रबि तपई, दह दिसि ज्वाला चहुंदिसि जरई॥
करि सनमुखि जब ग्यांन बिचारी, सनमुखि परिया अगनि मंझारी॥
गछत गछत तब आगै आवा, बित उनमांन ढिबुआ इक पावा॥
सीतल सरीर तन रह्या समाई, तहाद्द छाड़ि कत दाझै जाई॥
यूं मन बारुनि भया हमारा, दाधा दुख कलेस संसारा॥
जरत फिरे चौरासी लेखा, सुख कर मूल कितहूं नहीं देखा॥
जाके छाड़े भये अनाथा, भूलि परे नहीं पावै पंथा॥
अछै अभि अंतरि नियरै दूरी, बिन चीन्ह्या क्यूद्द पाइये मूरी॥
जा दिन हंस बहुत दुख पावा, जरत जरत गुरि राम मिलावा॥
मिल्या राम रह्या सहजि समाई, खिन बिछुर्या जीव उरझै जाई॥
जा मिलियां तैं कीजै बधाई, परमानंद भेटिये रैनि दिन गाई॥
सखी सहेली लीन्ह बुलाई, रूति परमानंद भेटिये जाई॥
चली सखी जहुंवा निज रांमां, भये उछाह छाड़े सब कामा॥
जानूं की मोरै सरस बसंता, मैं बलि जाऊँतोरि भगवंता॥
भगति हेत गावै लैलीनां, ज्यूं नि नाद कोकिला कीन्हा॥
बाजै संख सबद धुनि बैनां, तन मन चित हरि गोविंद लीना॥
चल अचल पांइंन पंगुरनी मधुकरि ज्यूं लेहि अघरनी॥
सावज सींह रहे सब माँची, चंद अरु सूर रहै रथ खाँची॥
गण गंध्रप सुनि जीवै देवा, आरति करि करि बिनवै सेवा॥
बासि गयंद्र ब्रह्मा करै आसा, हंम क्यूं चित दुर्लभ राम दासा॥
भगति हेतु राम गुन गावै, सुर नर मुनि दुर्लभ पद पावै॥
पुनिम बिमल ससि मात बसंता, दरसन जोति मिले भगवंता॥
चंदन बिलनी बिरहिनि धारा, यूं पूजिये प्रानपति राम पियारा॥
भाव भगति पूजा अरु पाती, आतमराम मिले बहुत भाँती॥
राम राम राम रुचि मांनै, सदा अनंद राम ल्यौ जांनै॥
पाया सुख सागर कर मूला, जो सुख नहीं कहूँ समतूला॥

सुख समाधि सुख भया हमारा, मिल्या न बेगर होइ॥
जिहि लाधा सो जांनिहै, राम कबीर और न जानै कोइ॥