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दुरित दूर करो नाथ / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

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दुरित दूर करो नाथ
अशरण हूँ, गहो हाथ।

हार गया जीवन-रण,
छोड़ गये साथी जन,
एकाकी, नैश-क्षण,
कण्टक-पथ, विगत पाथ।

देखा है, प्रात किरण
फूटी है मनोरमण,
कहा, तुम्ही को अशरण-
शरण, एक तुम्हीं साथ।

जब तक शत मोह जाल
घेर रहे हैं कराल--
जीवन के विपुल व्याल,
मुक्त करो, विश्वगाथ!