दुरी / नून मीम राशिद
मुझे मौत आएगी मर जाऊँगा मैं
तुझे मौत आएगी मर जाएगी तू
वो पहली शब-ए-मह शब-ए-माह-ए-दो-नीम बन जाएगी
जिस तरह साज़-कोहना के तार-ए-शिकस्ता के दोनों सिरे
दू उफ़ुक़ के किनारों के मानिंद
बस दूर ही दूर से थरथराते हैं और पास आते नहीं है
न वो राज़ की बात होंटों पे लाते हैं
जिस ने मुग़नी को दौर-ए-ज़माँ-ओ-मकाँ से निकाला था
बख़्शी थी ख़्वाम-ए-अबद से रिहाई !
ये सोचा था शायद
के ख़ुद पहले इस बोद के आफ़रीनदा बन जाएँगे
अब जो इक बहर-ए-ख़ामियाज़ा-कश बन गया है !
तो फिर अज़-सर-ए-नौ मसर्रत से नौ-सर नई फ़ातेहाना मसर्रत से
पाएँगे भूली हुई ज़िंदगी को
वही ख़ुद-फरेबी वो ही अश्क-शोई का अदना बहाना !
मगर अब वही बोद सर-गोशियाँ कर रहा है
के तू अपनी मंज़िल को वापस नहीं जा सकेगा
नहीं जा सकेगा
मुझे मौत आएगी मर जाऊँगा मैं
तुझे मौत आएगी मर जाऊँगा मैं
तुझे मौत आएगी मर जाएगी तू
ये इफ्रीत पहले हज़ीमत उठाएगा मिट जाएगा !