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दुर्दिन / अलेक्सान्दर पूश्किन / हरिवंश राय बच्चन

स्वप्न मिले मिट्टी में कब के,
और हौसले बैठे हार,
आग बची है केवल अब तो
फूँक हृदय जो करती क्षार ।

भाग्य कुटिल के तूफ़ानों में
उजड़ा मेरा मधुर बसन्त,
हूँ बिसूरता बैठ अकेले
आ पहुँचा क्या मेरा अन्त ।

शीत वायु के अन्तिम झोंके
का सहकर मानो अभिशाप,
एक अकेली नग्न डाल पर
पत्ता एक रहा हो काँप ।

अँग्रेज़ी से अनुवाद : हरिवंश राय बच्चन