भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दुलार / रामदेव झा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैया कहथिन 'बौआ' 'नूनू '
भैया कहथिन 'झात'।
कहथिन बाबी खिस्सा नित नव
दुपहर साँझ परात।
कहथिन बाबा 'उठह बौआ!
आब भेल छह भोर'।
अङना, बाड़ी-झाड़ी बूलथि
कयने सदिखन कोर।
जेठि बहिनि कपड़ा पहिराबथि
सब दिन क' आवेश।
ककबा ल' थकड़थि हलुकेसँ
नाम लटुरिया केश।
बाबू कहथिन' आबह बैसह,
खोलह आब किताब।
सबसँ पहिने खाँत सुनाबह
जोड़ह खूब हिसाब'।
बाल वयस, शिशु सभक दुलारू
पाबय सभक सिनेह।
ताहीसँ बलगर नित होअय
जीवनमे मन-देह।
बाबा-बाबी, बाबू, काका,
माय, बहिनि आ भाय।
देल दुलार जते, जीवन भरि
से की बिसरल जाय।