भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दुल्हन बरसात / रंजना जायसवाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

धान के नन्हे पौधे
कमर-भर पानी में
डुबकी लगा रहे हैं
लोट-लोट जाती है
लम्बी... छरहरी... हरी
मूज...

छोटे-बड़े
काले-गोरे
सभी पेड़
पहन रहे हैं
साफ़-सुन्दर
हरे वस्त्र

हिलकोरें ले रहा है
काई से आधा हरा
आधा सफ़ेद तालाब

झीगुर बजा रहे हैं
शहनाई...
बूँदें नाच-गा रही हैं
मेढ़क चीख़-चीख़कर
बता रहे है सबको

लौट आई है
सावन भईया की बारात
लेकर दुल्हन बरसात...।