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दुविधा / पद्मजा शर्मा
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मेरे भीतर कोई रहता है
कभी कहता है यह कर
कभी कहता है वह कर
कभी हट कभी बढ़
कभी रो कभी हँस
कभी परम्परा से टकरा
कभी उसका पालन कर
कभी कहता है हथेली पर आग उठा ले
कभी देता पानी कि बुझा ले
कभी कहता है आसमान तक उड़
कभी कहता है ज़मीन पर पाँव तो टिका ले
मन दुविधा में रहता है
हाँ-ना के इस संघर्ष को बड़ी मुष्किल से सहता है
मेरे भीतर यह कौन रहता है
जो मुझसे इतनी बातें करता है।