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दुश्मन को हारने से बचाना अजीब था / परवीन शाकिर
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दुश्मन को हारने से बचाना अजीब था
तर्क ए मुदाफ़अत का बहाना अजीब था
इक दूसरे को जान न पाए तमाम उम्र
हम ही अजीब थे कि ज़माना अजीब था
जिंदा बचा न कत्ल हुआ तायर ए उमीद
उस तीर ए नीम कश का निशाना अजीब था
जिस राह से कभी नहीं मुमकिन तिरा गुज़र
तेरे तलबगारों का ठिकाना अजीब था
खोना तो खैर था ही किसी दिन उसे मगर
ऐसे हवा मिज़ाज का पाना अजीब था